ख्वाइशों का पिटारा..
ख्वाहिशें उड़ी तो बहुत,
मुझे कैद करना ही ना आया।
ज़िन्दगी ने रियायत दी तो बहुत,
मुझे पर पैढी गढ़ना ना आया।
किसी ने कहा खिलखिलाती बहुत है,
किसी ने कहा कूकनी है ये।
जो सबने कहा वो खुद को समझाया,
खुद से खुद को समझना मुझे कभी ना आया।
जीवन का सार था कबीर - रहीम के दोहों में,
भुला दिया उन्हें अपनी सहूलियत पे,
उनके व्याख्यानों का आशय मुझे समझ ना आया।
समझने की कोशिश में सबको अपना अस्तित्व गवाया,
पर खुद की आकांक्षाओं पर कभी गौर ना फरमाया।
आज जब अपने निराश प्रतिबिम्ब की ओर हाथ बढ़ाया,
तो आलिंगन में आया , गुम ख्वाइशों की एक खजाना ।
ख्वाइशों के कोष को अब यथार्थ के पर लगाना है,
उन्हें फिर से उड़ना सिखाना है,
उन्हें फिर आसमान से मिलाना है।
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Thank you