कहानी एक मजदूर की
आया था शहर ये सोचकर, दे सकूंगा अपने बच्चो को दो वक़्त की रोटी मेहनत कर। रूखी सूखी जुगाड कर चला रहा था काम अपना, अब भटक रहा हूं दर बदर। बहुत दूर है गांव मेरा, पहुंचूं अब वहां क्या कर। चल तो पड़ा हूं परिवार लेकर, खाता हूं ठोकर पर मै दिन भर। छोटे छोटे पांव मेरे बच्चो के, दिन भर चल के थक जाते है। कंधे पर लेने लगु, हम ठीक है कह कर ना जाने इतनी हिम्मत कहां से लाते है। सुना है विदेश से एक वायरस आया, जिसने है हमारा भविष्य खाया। काम ख़त्म हो गया, इससे पहले कुछ समझ आया। शहर का रहा , ना गांव का रहा, मालिक का रहा , ना सरकार का रहा। बच्चो को मेरे अब रोटी कैसे खिलाऊं, मैं अब घर कैसे जाऊं? वायरस का पता नहीं, पर भूखमरी मार देगी, अपने ही देश में ये बेकद्री मार देगी। दिया है वोट उम्मीदों से, सुन लो ए सरकार। मैं वही मजदूर हूं, जिसके घर कल तुम वादे ले कर आए थे, भूला दूंगा सब गिले शिकवे, आज बस दे दो रोटी, जाने दो घर।